सोमवार, 2 जनवरी 2017

राज्यों में राज्यपाल की स्थिति एवं भूमिका

भारत का संविधान संघात्मक है। इसमें संघ तथा राज्यों के शासन के संबंध में प्रावधान किया गया है। संविधान के भाग 6 में राज्य शासन के लिए प्रावधान है। यह प्रावधान जम्मू कश्मीर को छोड़कर सभी राज्यों के लिए लागू होता है। जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति के कारण उसके लिए अलग संविधान है। संघ की तरह राज्य की भी शासन पद्धति संसदीय है। भारत में संघीय शासन की भांति राज्यों में भी कार्यपालिका के तीन रूप दिखाई देते हैं।
★नाम मात्र की कार्यपालिका:- राज्यपाल के रूप में
★ वास्तविक किन्तु राजनीतिक कार्यपालिका:- मुख्यमंत्री तथा मंत्रीपरिषद
★वास्तविक किंतु प्रशासनिक कार्य पालिका:- कर्मचारी तंत्र

राज्यपाल
राज्य प्रशासन में सर्वोच्च पद राज्यपाल का होता है। भारत में राज्यपाल का चयन अमेरिका की भांति जनता द्वारा निर्वाचित पद्धति से नहीं होता है, बल्कि हमारे यहां राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा नामित व्यक्ति होता है। राजस्थान में उदयपुर के महाराणा भूपाल सिंह को सन् 1952-55 तक राज्य का महाराज प्रमुख बनाया गया था। 1 नवंबर, 1956 से सभी राज्यों के गवर्नर राज्यपाल कहलाने लगे। दिल्ली, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह तथा पुदुच्चेरी में उप राज्यपाल का पद है। लक्षद्वीप, चंडीगढ़, दमन एवं दीव, दादरा एवं नगर हवेली में यह प्रशासक कहलाता है।

राज्यपाल की नियुक्ति
भारत में राज्यपाल का चयन कनाडा की भांति संघीय सरकार करती है। अनुच्छेद 155 के अनुसार राष्ट्रपति प्रत्यक्ष रुप से राज्यपाल की नियुक्ति करता है। नियुक्ति से संबंधित दो प्रथाएं प्रचलित हैं:-
★किसी व्यक्ति को उस राज्य का राज्यपाल नहीं नियुक्त किया जाएगा, जिसका वह निवासी हो।
★राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व राज्य के मुख्यमंत्री से विचार विमर्श किया जाता है।

कार्य अवधि
राज्यपाल केंद्र का प्रतिनिधि होता है तथा राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत पद पर बना रहता है। वह कभी भी पद से हटाया जा सकता है। यद्यपि राज्यपाल की कार्य अवधि उसकेे पदग्रहण से 5 वर्ष तक होती है। इस 5 वर्ष की अवधि के समापन के बाद वह तब तक पद पर बना रहता है, जब तक उसके उत्तराधिकारी पदग्रहण नहीं करते।

शक्तियां एवं कार्य
राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है। वह मंत्री परिषद की सलाह से कार्य करता है, परंतु उसकी संवैधानिक स्थिति मंत्रिपरिषद की तुलना में बहुत सुरक्षित है। वह राष्ट्रपति के समान असहाय नहीं है।
विवेकाधीन शक्ति:- परंपरा के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति को भेजी जाने वाली पाक्षिक रिपोर्ट के संबंध में निर्णय ले सकता है।  कुछ राज्यों के राज्यपालों को विशेष उत्तरदायित्व का निर्वाह करना होता है। विशेष उत्तरदायित्व का अर्थ है राज्यपाल मंत्री परिषद की सलाह तो ले परंतु इसे मानने हेतु बाध्य नहीं हो और नहीं उसे सलाह लेने की जरूरत पड़ती है।

राज्यपाल की वास्तविक स्थिति एवं भूमिका
भारत सरकार अधिनियम 1935 के अंतर्गत राज्यपाल का पद वास्तविक शक्तियों से परिपूर्ण एक प्रभावी पद था। किन्तु नये संविधान में यह अंशतः प्रतीकात्मक पद बना दिया गया। इस संबंध में सरोजिनी नायडू ने राज्यपाल को "सोने के पिंजरे में कैद एक चिड़िया" के समान जबकि विजयलक्ष्मी पंडित ने इसे "वेतन का आकर्षण" बताया। राजस्थान की राज्यपाल मारग्रेट अल्वा का मत था कि राज्यपाल राज्य सरकारों के लिए "सिरदर्द" है, तो दूसरी ओर केंद्र सरकार भी इन्हें महत्व नहीं देती है।
चूंकि राज्यपाल जनसाधारण द्वारा चुना हुआ व्यक्ति न होकर राष्ट्रपति द्वारा नामित व्यक्ति होता है, अतः वह अपना अधिकांश कार्य राज्य के मंत्रिमंडल के परामर्श के अनुरूप करता है। जहां तक स्वविवेकीय शक्तियों का प्रश्न है, उन का अवसर दैनंदिन नहीं होता है, बल्कि विशेष परिस्थिति, वह भी सीमित स्वतंत्रता के साथ होता है। अतः राज्यपाल की स्थिति संवैधानिक प्रमुख के रूप में सैद्धांतिक है। राज्यपाल की भूमिका 'केंद्र के अभिकर्ता' के रूप में है जो राजनीतिक मान्यताओं तथा स्वार्थों के आधार पर निर्णय करते हैं।

राज्यपाल के पद से संबंधित समस्त व्यवस्था पर पुनर्विचार की आवश्यकता
भारतीय संविधान के द्वारा स्थापित राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत यदि किसी पद की गरिमा को सर्वाधिक आघात हुआ है, तो वह राज्यपाल का पद ही है। सर्वप्रथम:-
◆ राज्यपाल पद पर सर्वमान्य योग्यता और प्रतिष्ठा के व्यक्तियों को नियुक्त किया जाना चाहिए। राजनीतिज्ञ को राज्यपाल पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। केवल ऐसे ही व्यक्ति को राज्यपाल के पद पर नियुक्त किया जाना चाहिए, जिन्होंने राजनीति, प्रशासन, शिक्षा, समाज सेवा के क्षेत्रों में सम्मान प्राप्त किया हो और जो दलीय राजनीति से ऊपर उठकर परिस्थितियों का आकलन करने तथा स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता रखते हैं।
◆ राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच संदेह, अविश्वास, मतभेद और तनाव की स्थिति उत्पन्न न हो; इसके लिए राज्यपाल की नियुक्ति के बारे में राज्य के मुख्यमंत्री से विचार विमर्श की व्यवस्था को अनिवार्य कर देना चाहिये।
◆ केंद्रीय सरकार द्वारा राज्यपाल के पद के संबंध में मर्यादित आचरण की स्थिति अपनाते हुए केंद्रीय सरकार द्वारा राज्यपाल की पदच्युति एवं मनमाने तौर पर राज्यपाल के एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरण के मार्ग संबंधित राजनीतिक विवादों से दूर रखने की चेष्टा की जानी चाहिए।

राजू धत्तरवाल
बीए द्वितीय वर्ष
परिष्कार कॉलेज

रेल बजट का अंत

सरकार ने नौ दशक से भी ज्यादा पुरानी परंपरा को खत्म करके रेल बजट को आम बजट के साथ पेश करने का फैसला लिया है।
★ 1924 के बाद यह पहला मौका होगा जब रेलवे के लिए अलग से बजट पेश नहीं किया जाएगा।
★ 1859 से पहले देश में बजट नामक कोई व्यवस्था नहीं थी।
★ जेम्स विल्सन ने 7 अप्रैल 1860 को पहली बार बजट पेश किया। इसमें रेलवे का लेखा जोखा भी शामिल था।
★ यह प्रक्रिया अगले 63 वर्ष तक इसी प्रकार चली।
★ फिर ईस्ट इंडिया रेलवे कमेटी के चेयरमैन "सर विलियम एकवर्थ" की सिफारिश पर 1924 में पहली बार रेल बजट को आम बजट से अलग पेश किया गया।
★ उनका यह मानना था कि अकेला रेल विभाग भारत की सबसे बड़ी आर्थिक गतिविधियों का संचालन करता है। वर्ष 1924 में पूरे देश के बजट में रेल बजट की हिस्सेदारी 70 फीसदी थी, इसलिए अधिक हिस्सेदारी को देखकर रेल बजट को अलग करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया।

रेल बजट के अंत का आधार:-
रेलवे बजट एक बड़ी आर्थिक गतिविधियों का संचालन करता है। लेकिन आज रक्षा और परिवहन जैसे कई क्षेत्रों का आकार रेलवे से कहीं बड़ा है, जबकि इनका बजट आम बजट में शामिल किया जाता है।
रेल बजट को आम बजट में मिलाए जाने के पीछे एक बड़ी सोच "मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस" का सिद्धांत भी है। यानी सरकार का आकार छोटे से छोटा हो, जबकि व्यवस्था ज्यादा बड़ी और सुचारु रुप से चल सके।

# रेलवे बजट को खत्म करने की बात नीति आयोग के सदस्य "विवेक देवराय" और आयोग के विशेष अधिकारी "किशोर देसाई" की एक रिपोर्ट Dispensing with the rail budget से शुरू हुई। रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने वित्त मंत्री अरुण जेटली से रेलवे बजट के अंत की बात कही। इस बारे में कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी। जिस की सिफारिशों के आधार पर कैबिनेट ने रेल बजट को आम बजट में मिलाए जाने के प्रस्ताव पर 21 सितम्बर को मुहर लगा दी।

# रेल बजट को खत्म करने की एक बड़ी वजह इस प्रक्रिया का 'राजनीतिकरण' भी है। रेल बजट लगातार राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरता रहा। फिर धीरे धीरे राजनीतिक मंच बनता गया। जिसका इस्तेमाल सरकार की लोक लुभावन और आम आदमी के अनुकूलन वाली व्यवस्था की छवि तैयार करने के लिए होने लगा। नतीजा यह हुआ कि सालों-साल रेल बजट में रेलवे की वित्तीय स्थिति के बजाय इस बात पर जोर दिया गया कि - कितनी नई गाड़ियां, कितनी जगह पर नई पटरिया, मौजूदा गाड़ियों को कितनी जगह बढाया, कितनी नई परियोजना लाई गई आदि। इन सबसे रेलवे का भला होने के बजाए रेलवे को सामाजिक देनदारियों की वजह से करीब 33000 करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा।

केंद्र सरकार हर साल रेलवे को पूंजीगत खर्चों को पूरा करने के लिए बजटीय सहायता मुहैया कराती है। वहीं दूसरी ओर लाभांश के तौर पर एक निश्चित रकम रेलवे से ले ली जाती है। रेल बजट को खत्म करने की रिपोर्ट का कहना है कि दरअसल रेलवे की ओर से केंद्र सरकार को दिया जाने वाला लाभांश मिथ्या है। यह रकम ऐसे कर्जे के लिए दी जाती है, जिसमें मूल्य रकम कभी खत्म नहीं होती। इसलिए रिपोर्ट में लाभांश को खत्म करने की बात कही गई, जिसे कैबिनेट ने मान लिया।

हालाँकि संविधान में कहीं भी अलग से रेलवे बजट पेश करने का कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए रेल बजट को खत्म करने के लिए संविधान में संशोधन या नियम कानून बदलने की जरूरत नहीं है।
यही कुछ वजह रही है कि कार्यकारिणी के एक फैसले से नौ दशक से भी ज्यादा समय से चली आ रही परंपरा खत्म करने का रास्ता खुला।

शीनू
बीए द्वितीय वर्ष
परिष्कार कॉलेज

दुनिया संकुचन की ओर

8 नवंबर को जैसे ही अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की अंतिम घोषणा हुई वैसे ही समूची दुनिया स्तब्ध रह गई क्योंकि अमेरिका में ट्रंप की विजय पताका लहरा रही थी। ट्रंप-हिलेरी के चुनाव प्रचार के दौर में हिलेरी का पलड़ा भारी दिख रहा था, परंतु चुनाव के नतीजे कुछ और ही सामने आए। अमेरिका की समस्त मीडिया, बुद्धिजीवी एवं सामाजिक कार्यकर्ता ट्रंप के विरोध में थे, फिर भी ऐसा क्या हुआ कि अमेरिकी जनता ने ट्रंप को चुना?
ट्रंप के नकारात्मक चुनाव अभियान, जिसमें नस्लवादी, स्त्री विरोधी, अल्पसंख्यक विरोधी एवं लोकतंत्र विरोधी बातें सामने आती रही, फिर भी अमेरिकी जनता ने ट्रंप को चुना। इसका क्या कारण रहा? यदि इसे हम भारत के परिप्रेक्ष्य में देखे तो विदेश नीति के जानकार पुष्पेश पंत  के इन शब्दों से हमें इसे समझने में आसानी होगी। उन्होंने कहा कि "यदि भारत की नजरों से अमेरिका को देखा जाए तो अमेरिका में सिलिकॉन वैली, आरामदायक जीवन और भौतिकवादी आकर्षण ही दिखाई देता है। मगर ट्रंप उस अदृश्य अमेरिका का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे संकुचित मानसिकता वाले नस्लवादी एवं महिला विरोधी जैसी अनेक उपमाओं की बू आती है।"
यदि इतिहास का विद्यार्थी अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव नतीजों से पहले कयास लगाने की कोशिश करता कि राष्ट्रपति कौन होगा, तो शायद वह कह सकता था कि ट्रंप चुनाव जीतेंगे! क्योंकि इतिहास की उस पुरानी कहावत पर नजर डाले कि "इतिहास दोहराता है" तो ऐसा पहले से ही लग रहा था। अब प्रश्न उठेगा कैसे? तो वह ऐसे द्वितीय विश्व युद्ध से पहले कुछ इसी तरह के घटक उभरकर सामने आए थे। जर्मनी में हिटलर, मुसोलिनी का इटली में उदय और जापान में क्रूर शासन और इन तीनो ताकतों ने मिलकर द्वितीय विश्वयुद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, जो विनाशकारी सिद्ध हुई थी। वही अब अलग परिस्थितियों में कुछ वैसा ही देखा जाए तो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्वीकरण के जिस दौर में "विश्वग्राम" की अवधारणा की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा था, वही यह अवधारणा सिकुड़ती नजर आ रही है। ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से अलग होना, अमेरिका में ट्रंप का उदय, फ्रांस में ओलांद का इस्तीफा और राष्ट्रवादी पार्टी का बढ़ता प्रभाव, जर्मनी में एंजेला मर्केल का शरणार्थी स्वागत पर रोक लगाने की घोषणा, भारत में 80 एवं 90 के दशक में उभरे हिंदू राष्ट्रवाद का सत्ता में बैठना, पुतिन का रूस को पूर्व सोवियत संघ की भांति खड़ा करना और सीरिया में उसकी आगे बढ़कर कार्यवाही, अरब में सऊदी अरब एवं ईरान के मध्य टकराव, जिससे आयी तेल बाजार में नरमी और इराक-सीरिया में वहाबी इस्लामी राष्ट्रवाद का ISIS के रूप में उदय और दक्षिण चीन सागर में चीन का प्रभाव। इन सभी घटकों को जोड़कर किसी भी तरह के ध्रुवों का निर्माण हो सकता है और किसी भी प्रकार की वैश्विक परिस्थिति का निर्माण कर सकती है। हो सकता है कि यह परिस्थितियां द्वितीय विश्वयुद्ध के समान परिस्थितियां पैदा करें या उससे भी भयंकर एवं यह सभी धारणाये खोखलीे साबित हो और काश खोखली ही हो। मगर यह प्रश्न करना वाजिब है कि ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हुआ कैसे?
इसका सीधा सीधा जवाब है कि जनतांत्रिक मूल्यों का अभाव, सत्ता की प्यास एवं पूंजी की खाद। वास्तव में जनतांत्रिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, सत्ता वर्ग जन के लिए नहीं अपितु धन के लिए कार्य कर रहा है। आज के बाजार वादी युग में "जो बोलता है, उसका बिकता है" की अवधारणा सत्ता में भी लागू होती दिख रही है, ट्रंप जैसे लोग अपने बड़बोलेपन के कारण जीत रहे हैं, इसका समर्थन जनता से मिल रहा है। वैश्वीकरण की कमर तोड़ कर ब्रेग्जिट को भी जनता का समर्थन मिला, तो क्या जनता सामाजिक, लोकतांत्रिक एवं राजनीतिक शिक्षा से अनभिज्ञ हो रही है। क्या विश्वबंधुत्व, लोकतंत्र एवं सहिष्णु जैसे विचार मैले पड़ रहे हैं? क्या हम सीमाओं से निकलकर पुनः सीमाओं में जा रहे हैं? क्या जिस उदारवाद का दम आर्थिक क्षेत्र में भरा जाता है, उसका कोई भी हस्तक्षेप सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक रुप से नहीं है? क्या जिस वैश्वीकरण को विश्वग्राम हेतु विश्व पटल पर लाया गया था, वह आर्थिक लंगड़े पर तक ही सीमित रह गया। यह सब विचारणीय प्रश्न है।
जब तक लोकतंत्र, सहिष्णुता, भाईचारे, उदारवाद एवं वैश्वीकरण को आर्थिक रुप से ही देखा जाएगा, ऐसी समस्याएं या इससे बड़ी समस्याएं वैश्विक पटल पर उभरती रहेंगी। उपरोक्त विचारधाराओं को सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक आयामों के साथ जोड़ना ही पड़ेगा एवं नीतियों को उस धन के लिए नहीं अपितु जन के लिए लागू करना होगा, तभी उपरोक्त संकटों को टाला जा सकेगा।

रजत सारस्वत
परिष्कार कॉलेज

रविवार, 1 जनवरी 2017

आर्थिक उदारीकरण या स्वदेशीकरण

भारत का एक बड़ा प्रभावी वर्ग आर्थिक विकास के नाम पर उदारीकरण और वैश्वीकरण का नारा बुलंद किए हुए है। उसका मानना है कि जब तक पर्याप्त पूंजी निवेश भारतीय क्षेत्र में नहीं होगा, चाहे वह विदेशी हो या देशी तब तक देश का आर्थिक विकास नहीं होगा। इसके लिए विदेशी कंपनियों को पर्याप्त सुविधाएं देनी होगी। उदार आर्थिक नीति ही हमें बचा सकती है। इसके विपरीत पिछले कुछ वर्षों से स्वदेशीकरण का नारा भी सुनाई पड़ने लगा है तथा यह विवाद चल गया है कि हमारा हित उदारीकरण में है या स्वदेशीकरण में? हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपने गौरवशाली अतीत को भूल गए। अंग्रेजों के शासन से पूर्व भारत विश्व के धनी राष्ट्र में से एक था। यहां के उद्योग धंधे विकसित थे। दुनिया के अधिकांश राष्ट्रों से हमारे व्यापारिक संबंध थे। भारत वैभव एवं संपन्नता का केंद्र था, धीरे-धीरे यह संपनता विपन्नता में बदल गई। ब्रिटिश सरकार की गलत नीतियों के कारण हमारी अर्थव्यवस्था चौपट हो गई। हमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद का उपनिवेश बना दिया गया। यही के कच्चे माल से ब्रिटेन का औद्योगिक विकास हुआ और हमारा निरंतर शोषण होता रहा।

पश्चिमोन्मुखी आर्थिक नीतियों के कारण हमारा देश आर्थिक गुलामी की ओर धकेला जा रहा है। विदेशी ऋण भयावह स्थिति तक पहुंच गया है। विदेशी और आंतरिक ऋण का ब्याज चुकाने के लिए हमें कर्जा लेना पड़ रहा है। देश की आर्थिक स्थिति जर्जर होती जा रही है। बजट का चौथाई से भी अधिक भाग केवल ब्याज के भुगतान में जाएगा। इसका दुष्परिणाम यह है कि विदेशी ऋण देने वाले राष्ट्र या संस्थाओं की शर्तों को स्वीकार किया जा रहा है। रुपए का अवमूल्यन, सार्वजनिक उद्योगों का निजीकरण तथा विदेशी पूंजी को बढ़ाने की शर्तें भारत में विदेशी दबाव में स्वीकार की है। उदारीकरण की नीति इसी का परिणाम है। इसी के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को छूट दी जा रही है। भारत सरकार इन विदेशी कंपनियों को पलक पावडे बिछा कर न्यौता दे रही है। उनके आगमन से स्वदेशी उद्योग चौपट हो जाएंगे, भारतीय व्यवस्था ठप हो रही है एवं बेरोजगारी बढ़ रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारी बड़ी कंपनियों तक को निगल रही है। टाटा आयल, गोदरेज, पारले आदि इनके मुंह में समाते जा रहे हैं।

अतः हमें यह स्पष्ट रूप से समझना होगा कि पश्चिम के आत्मघाती विकास दर्शन और विदेशी शक्तियों के सहारे भारत के विकास की नई राह नहीं बनाई जा सकती। आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत विकास के पश्चिमी मॉडल के भ्रम जाल से बाहर निकलकर स्वदेशी दर्शन पर आधारित अपने स्वयं के विकास के मार्ग को अपनाए। बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश की राष्ट्रीय अस्मिता पर चोट है। यह चेतना सबके मन में जगानी होगी तथा उनके उत्पादों का बहिष्कार करना होगा। जैसा हमने अंग्रेजों के शासन काल में महात्मा गांधी के नेतृत्व में किया था। हमें स्वदेशी का मंत्र पुनः जगाना होगा। विदेशी ऋण लेने की क्षमता पर प्रतिबंध लगाना होगा, तथा निर्यात बढ़ाने होंगे, आयात घटाने के स्वदेशी तंत्र के ज्ञान को विकसित करना होगा तथा विदेशी पूंजी के भारत में निवेश के प्रति सतर्कता बरतनी होगी। यदि हम शोषण मुक्त एवं स्वायत्त समाज का निर्माण करना चाहते हैं तो स्वदेशीकरण के विचार को प्रोत्साहन देना होगा। अंधानुकरण की दौड़ में शामिल होकर देश को विदेशी आर्थिक शक्तियों को सौंप देने से हमारी स्वतंत्रता किस प्रकार बनी रहेगी यह विचारणीय विषय है।
पंकज कुमार चंदेल
B.A. तृतीय वर्ष
परिष्कार कॉलेज जयपुर

ग्लोबल वार्मिंग: वर्तमान परिदृश्य

ग्लोबल वार्मिंग, जो बहुत ही सुना सा शब्द लगता है, लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं देना चाहता। जिस तरह प्राकृतिक आपदा कभी भी, किसी को बोल कर नही आती और भारी जन धन की हानि देकर जाती है। जैसे- सुनामी, भूकम्प, अतिवृष्टि, भीषण गर्मी आदि। आज भी हम ग्लोबल वार्मिंग की समस्या देख तो रहे है, परन्तु उसे नजर अंदाज कर रहे है, जबकि आने वाले वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग का असर और भी ज्यादा दिखने लगेगा।

ग्लोबल वार्मिंग क्या है?
ग्लोबल वार्मिंग जिसे सामान्य भाषा में भूमंडलीय तापमान में वृद्धि कहा जाता है। पृथ्वी पर ऑक्सीजन की मात्रा ज्यादा होनी चाहिये, परन्तु बढ़ते प्रदूषण के साथ कॉर्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है, जिसका असर ग्रीन हाउस पर पड़ रहा है। ग्रीन हाउस के असंतुलन के कारण ही ग्लोबल वार्मिंग हो रही है।

ग्रीन हाउस क्या है?
सभी प्रकार की गैसों से, जिनका अपना एक प्रतिशत होता है, उन गैसों सेबना ऐसा आवरण है जो कि पृथ्वी पर सुरक्षा परत की तरह काम करता है, जिसके असंतुलित होते ही ग्लोबल वार्मिंग जैसी भीषण समस्या सामने आती है।

ग्लोबल वार्मिंग क्यों हो रही है?
ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण प्रदूषण है। आज के समय के अनुसार प्रदूषण और उसके प्रकार बताना व्यर्थ है। हर जगह, हर क्षेत्र में यह बढ़ रहा है। जिससे कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है, फलस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। आधुनिकीकरण के कारण पेड़ो की कटाई, गाँवो का शहरीकरण में बदलाव, हर खाली जगह पर बिल्डिंग, कारखाना या अन्य कोई कमाई के स्रोत खोले जा रहे हैं। खुली एवं ताज़ी हवा के लिए कोई स्रोत नही छोड़े। गिनाने के लिए और भी कई कारण है। पृथ्वी पर हर चीज का एक चक्र चलता है, हर चीज एक दूसरे से कही ना कही जुड़ी रहती है। एक के हिलते ही पृथ्वी का पूरा चक्र हिल जाता है, जिसके कारण भारी नुकसान का सामना करना पड़ता है।

ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव:-
जिस तरह प्राकृतिक आपदा का प्रभाव पड़ता है, उससे भारी नुकसान उठाना पड़ता है। बिल्कुल उसी तरह ग्लोबल वार्मिग एक ऐसी आपदा है जिसका प्रभाव धीरे धीरे होता है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण बात है कि ग्लोबल वार्मिंग से हो रहे नुकसान की भरपाई मनुष्य अपनी अंतिम सांस तक नही कर सकता। जैसे- ग्लोबल वार्मिंग के चलते कई पशु-पक्षी एवं जीव-जंतुओं की प्रजाति विलुप्त हो गई है। बहुत ठंडी जगह जहाँ, बारह महीनों बर्फ की चादर ढकी रहती थी, वहां बर्फ पिघलने लगी, जिससे जल स्तर में वृद्धि होने लगी है। पृथ्वी पर मौसम के असंतुलन के कारण चाहे जब अति वर्षा, गर्मी व ठंड पड़ने लगी है या सूखा रहने लगा है, जिसका सबसे ज्यादा असर फसलों पर पद रहा है। जिससे पूरा देश आज की तारीख में महंगाई से लड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग से पर्यावरण का सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है। जिस से हर व्यक्ति छोटी से लेकर बड़ी तक किसी ना किसी बीमारी से ग्रस्त है। शुद्ध ऑक्सीजन न मिलने के कारण व्यक्ति घुटन की जिंदगी जीने लगा है।

ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पर मेरे सुझाव:-
ग्लोबल वार्मिंग के लिए बहुत आवश्यक है "पर्यावरण बचाओ, पृथ्वी बचेगी।" बहुत ही छोटे छोटे दैनिक जीवन में हो रहे कार्यों में बदलाव को सही दिशा में ले जाकर इस समस्या को सुलझाया जा सकता है।

# पेड़ों को अधिक से अधिक मात्रा में मौसम के अनुसार लगाये।
# लंबी यात्रा के लिए कार की बजाय ट्रेन से यात्रा करे।
# दैनिक जीवन में जहां तक संभव हो सके दुपहिया वाहनों की बजाय सार्वजनिक बसों या यातायात के साधनों का उपयोग करे।
# बिजली से चलने वाले साधनों की अपेक्षा सौर ऊर्जा वाले साधनों का उपयोग करे।
# जल का दुरूपयोग न करें, प्राचीन एवं प्राकृतिक जल संसाधनों का नवीनीकरण ऐसे न करें, जिससे वह नष्ट हो जाये।
# आधुनिक वस्तुओं के उपयोग को कम कर घरेलु एवं देशी साधनों का उपयोग करे।

पंकज कुमार चंदेल
B.A. Final Year
परिष्कार कॉलेज