मंगलवार, 4 सितंबर 2018

सकारात्मक सोच - सफ़लता का मार्ग

'सकारात्मक सोच- सफलता का मार्ग'

साथियों,
सकारात्मक सोच सफलता की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। जब भी आपके सामने कोई लक्ष्य है और आप सफलता के ऊँचे शिखर को छूने का प्रयास कर रहे हो तो आपके पास सबसे जरूरी हो और महत्वपूर्ण शस्त्र होना चाहिए- `सकारात्मक सोच`|  सकारात्मक सोच अर्थात  अंधेरे में भी राह बनाने की कला, दुःख को भी सुख में बदल देने का गुर।

सकारात्मक सोच के साथ ही आत्मविश्वास का होना सफलता को दोगुना कर देता है। सकारात्मक सोच वह ताकत है,जो असंभव को भी संभव में बदल देती है।
शोधकर्ता बताते हैं कि हमारे दिमाग में हर दिन साठ हजार विचार आते हैं,पर साठ हजार विचारों में से अधिकांश विचार नकारात्मक प्रवृत्ति के होते हैं। इनमें सकारात्मक विचारों की संख्या कम होती है । जब हम सकारात्मक सोच रहे होते हैं तब हम सफलता की ओर बढ़ रहे होते हैं, जब हम नकारात्मक सोच रहे होते हैं तब हम नाकामी की ओर बढ़ रहे होते हैं।

हमारा मानव-मस्तिष्क भूमि के टुकड़े के समान है। जिस प्रकार भूमि को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि इसमें क्या बोया जा रहा है उसी प्रकार मानव-मस्तिष्क को भी इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि उसमें किस प्रकार के विचार बोये जा रहे हैं? यदि हम सकारात्मक विचारों की खेती करते हैं तो सफलता की फसल काटते हैं और यदि हम नकारात्मक विचारों की खेती करते हैं तो हम नाकामी की फसल काटते हैं ।
साथियों, जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ व संघर्ष क्यों ना आएं, सकारात्मक सोच बनाए रखें क्योंकि सकारात्मकता हमेशा ही सफलता की ओर अग्रसर करती है
    यदि आप नकारात्मक सोचते हैं,
    तो परिणाम नकारात्मक आएंगे ।
    यदि आप सकारात्मक सोचते हैं,
    तो परिणाम सकारात्मक ही होंगे।।

स्वामी विवेकानंद ठीक ही कहा है -

   अपने जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित करो।
   अपने पूरे शरीर को एक लक्ष्य से भर दो,
   और हर दूसरे विचार को अपनी जिंदगी से निकाल दो ,
   क्योंकि यहीं सफलता की कुँजी है।

  ~ नोट- मेरे द्वारा लिखित यह लेख 'सकारात्मक सोच-सफलता का मार्ग'  परिष्कार कॉलेज द्वारा प्रकाशित अगस्त माह की  परिष्कार स्पंदन में प्रकाशित हो चुका है ।

      ~  सुरेश कुमार पटेल 'जिज्ञासु'
            बी. ए. तृतीय वर्ष
     परिष्कार कॉलेज ऑफ़ ग्लोबल एक्सीलेंस, जयपुर

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्महत्या


आत्महत्या,
एक ऎसा हथियार या यूँ कहो कि रामबाण औषधि किसी मुसीबत से बचने का, खुद को निकाल कर अपने परिवारजन को दुःख देने का या फिर वास्तविकता कहूँ तो हिम्मत हार जाना।

एक सभ्य परिवार में रहते हुए, एक प्रगतिशील राष्ट्र के कर्तव्यनिष्ठ नागरिक होकर जो कि इस राष्ट्र को प्रगतिशील बनाने मे अहम भागीदारी निभा रहा है, एक ऎसा राष्ट्र जो हज़ारों परेशानियों से जूझ रहा है। किंतु फिर भी एक घायल जवान की भांति सीमा पर इसी उम्मीद में खड़ा हुआ है कि कभी ना कभी तो उसकी प्रजा बदलेगी, परंतु इस घायल जवान रूपी राष्ट्र को मिलता क्या है? सिर्फ "निराशा".... वो भी आत्महत्या के रूप में, बलात्कार के रूप में, भ्रष्टाचार के रूप में,अमानवता के रूप में.... न जाने कितने ही अनेको रूप है इस निराशा के। परंतु सभी समस्या को एक किनारे कर मैं बात करू "आत्महत्या " की तो आंकड़े आपको अंदर तक झकझोर देने वाले हैं। जी वास्तव में यही हाल है भारतीय सभ्य समाज का, एक ऎसे समाज का जिसे युवाओं का समाज कहा जा सकता है। लेकिन क्या इस सभ्य समाज का युवा इतना कमजोर है? या फिर इस युवा में सिर्फ निराशा भरी हुई है?

क्योंकि प्रत्येक छोर पर निराशा का अनंत समुद्र दीख पड़ता है।
और सवाल है क्यों.......? ये निराशा क्यों है, क्या समाज खुद अपने युवाओं में ये निराशावादी विचारधारा उत्पन्न कर रहा है? परंतु जहां तक मेरा मानना है तो ये युवा ही तो समाज है, तो क्यों युवा खुद से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है?
क्या अब कोई उपाय दिखाई देता है इसका.......?
जी, जरूर! उपाय है, और वो मै हूँ, आप स्वयं है, आपका परिवार है और सबसे महत्वपूर्ण आपके और आपके परिवार के विचार है।
नहीं, नहीं मै आपको जागरूक नहीं कर रहा हूँ, बिल्कुल भी नहीं।
मैं तो सिर्फ एक बच्चा हूँ, जो खुद दुखी है इस "जागरूकता" से।
क्या वो 35 साल की महिला जागरूक नहीं थी जो IRS जैसे पद पर अधीनस्थ थी?
नहीं, नहीं मै समझदारी की भी बात नहीं कर रहा हूँ। अरे! मै तो सिर्फ एक बच्चा हूँ...... जो दुखी है ऎसी "समझदारी" से
परंतु क्या वो IAS अधिकारी भी समझदार नहीं था, जिसने ये कदम उठाने के लिए मजबूर किया।
विडम्बना देखिए जनाब इस समाज  कि जब "जागरूकता" और "समझदारी" का मिलन होता है तो उत्पन्न होती है, "आत्महत्या"।

इतनी असभ्यता इस सभ्य कथित समाज में, जिसकी महानता के नारे लगाये जाते रहे है।
परंतु विचार करने वाली बात यह है कि आज की युवा सभ्यता आने वाली युवा सभ्यता के लिए किस प्रकार का इतिहास छोड़ कर जाएगी ?   क्या असर होगा आने वाले युवाओं पर जो अपने जीवन के प्रारंभिक सफर में इन घटनाओं से सामना करने पर मज़बूर है।
इसलिए आवश्यक है कि जो जागरूकता और समझदारी आपके अंदर दबी पड़ी है उसे अमल में लाया जाये, साझा किया जाये, इसका सही उपयोग एवं सही तरीका समझाया जाये। ताकि जब इनका मिलन हो तो आत्महत्या नहीं बल्कि "आत्म सुरक्षा" उत्पन्न हो सके।
क्योंकि इस "आत्म सुरक्षा" से ना सिर्फ आपका अपितु आपके परिवार का, आपके समाज का आने वाली युवा पीढ़ी का भी भला हो सकेगा और शायद उस घायल जवान के घावों पर भी मल्हम लग जाये जो खड़ा हुआ है सीमा पर अपनी प्रजा के बदलने के इंतज़ार में..... याद तो है ना आपको!

एक चिन्तनशील एवं विचारणीय भावना.....

         ~  तुषार स्वर्णकार
       ~ बी.ए. प्रथम वर्ष
     परिष्कार कॉलेज ऑफ़ ग्लोबल एक्सीलेंस, जयपुर