शनिवार, 17 दिसंबर 2016

संसद में घटता कामकाज

लोकतंत्र में इससे अधिक शर्मनाक बात और क्या हो सकती है, कि देश के राष्ट्रपति को सांसदों से संसद के सत्र को सुचारू रूप से चलाने की अपील करनी पडी, ताकि जनहित से जुड़े मुद्दों पर बहस हो सके।
वैसे तो संसद सत्रों का राजनीतिक कोहराम की भेंट चढ़ना कोई नयी बात नहीं है, यह बरसो की परंपरा बन गयी है।
संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होकर ख़त्म होने की तरफ बढ़ रहा है, लेकिन संसद है कि नोटबंदी के भंवर जाल में अटक कर रह गयी। विपक्ष इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री का जबाब सुनना चाहता है,परन्तु सत्ता पक्ष अपनी जिद पर अड़ा हुआ है।
माननीय राष्ट्रपति की अपील से पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी जी भी संसद के ठप्प होने पर नाराजगी जता चुके हैं एवं उन्होंने तो संसदीय मंत्री  व लोकसभा अध्यक्ष को भी कठघरे में खडा कर दिया।इस सम्बन्ध में  आडवाणी जी का यह सुझाव स्वागत योग्य है कि फालतु का शोर करने वाले सांसदों को सदन से बाहर निकाल दिया जाये एवं उनके वेतन भत्तों में कटौती कर दी जाये।
वास्तव में मसला कोई भी हो, लेकिन इसके लिए जरूरी नहीं है कि संसद के विधायी कार्य रोक दिये जायें,  बल्कि देश की संसद का प्रयोग सकारात्मक बहस के लिए किया जाये।
पारंपरिक रूप में यह माना जाता है कि  संसद को चलाने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की होती है, परंतु इसमें विपक्ष का सहयोगात्मक रूख भी आवश्यक है।
अतः लोकसभा अध्यक्ष व राज्यसभा सभापति का यह दायित्व है कि दोनों पक्षो को बुलाकर संसदीय कामकाज को पटरी पर लाने का प्रयास करें।
मेरा सुझाव यह है कि जो सांसद संसद में कामकाज न करे व अनावश्यक बाधा उत्पन्न करे, उन सांसदों के सम्बन्ध में "काम नहीं तो दाम नहीं" की नीति अपनाई जानी चाहिये। इसका काफी हद तक असर भी होगा।
नोटबंदी के मुद्दे पर विपक्ष ने संसद की कार्यवाही बाधित कर रखी है। यह पहला मौका नहीं है, जब विपक्ष संसदीय कामकाज नहीं होने दे रहा है। आज जो नेता सरकार में हैं और विपक्ष को उसका दायित्व याद दिला रहे हैं, वे भी पूर्व में विरोध का यही तरीका अपनाते रहे हैं। यही नहीं विपक्षी दल के नेता जो पूर्व सरकार में थे, वे भी संसद ठप्प होने पर वही तर्क और भाषा इस्तेमाल करते थे, जो आज सत्ता पक्ष कर रहा है। अर्थात दोनों पक्षो ने इसे झूठी प्रतिष्ठा का सवाल बनाकर लोकतंत्र को बंधक बना रखा है।
अंत में बेचारी जनता के पास जहर का घूट पीने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है, क्योंकि समय आने पर इनमें से किसी एक को चुनना मजबूरी होगी।

द्योजीराम फौजदार
M.A. Final (Political Science)

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