शनिवार, 17 दिसंबर 2016

विवेकानंद जी

"विभिन्न कालखंडों में  समय की  आवश्यकतानुरूप यथार्थ में आदर्श का उदाहरण प्रस्तुत कर न केवल तात्कालीन वर्त्तमान की पीड़ा का निवारण कर उनका मार्गदर्शन करने  बल्कि युगों युगों तक भविष्य को प्रेरित करने की विशिष्ट प्रतिभा भारत की प्रवृति रही है। जिसका साक्षी समय और जिससे विस्मित विश्व होता आया है। ऐसे में आज अगर भारत  का वर्त्तमान  परिस्थितियों की पीड़ा झेलने को बाध्य है तो मैं इसे परिवर्तन की प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में देखता हूँ। नए को जन्म देना  निश्चित रूप से कष्टमय  होता है।          

विवेकानंद और नरेंद्र के बीच बुद्धि और ज्ञान का अंतर था, ऐसे में सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता के सन्दर्भ में  विवेकानद  की पूर्ती की अपेक्षा नरेंद्र के विकल्प से संभव ही नहीं, पर जब नरेंद्र और विवेकानंद के बीच का अंतर ही भारत को स्पष्ट न हो तो उसकी पीड़ा स्वाभाविक है।

आध्यात्म की दृष्टि से राष्ट्रीय जीवन में नयी ऊर्जा का संचार कर भारतीयों का भारत से परिचय करना ही स्वामी विवेकानंद जी के अल्पायु की विशिष्ट उपलब्धि रही है, फिर बात चाहे आदि शकराचार्य की करें या विवेकानंद की, अगर समय के गर्भ से उत्पन्न युवा  संभावनाओं ने समय समय में इस देश को नयी दिशा दी  है तो आखिर क्या कारण है जो आज हम ऐसे किसी भी नए सम्भावना से स्वयं को प्रतिरक्षित कर रखे हैं?        

जब उद्देश्य स्पष्ट हो, समस्याओं का बोध भी ..तो संवेदनाएं आवश्यकताओं  को महसूस  कर स्वयं अपने प्रयास से नए की सम्भावना बना लेती हैं। पर जब शासन तंत्र का उद्देश्य भ्रमित हो, समस्याओं की समझ सीमित और समाज को व्यवहारिकता की समझदारी ने संवेदनहीन बना दिया हो तो स्वाभाविक है कि परिस्थितियों  का परिवर्तन  भी समस्या बन जाता है।

एक राष्ट्र के रूप में हम अपने लिए कैसी व्यवस्था चाहते हैं ये इतना कठिन प्रश्न भी नहीं अगर स्वार्थ ने हमारे समझ के माध्यम से हमें छोटा न कर दिया हो तो। हाँ, अगर हमारी कल्पनाशक्ति की कुंठा ही हमारी संभावनाओं को सीमित कर दे और क्या होना चाहिए हमें इसका भी बोध न हो तो जो भी हो रहा है हम उसी से संतुष्ट होना भी सीख जाएंगे।
                                    
आर्थिक  प्रगति  को सामाजिक विकास का पर्याय मान लेना हमारी समझ की भूल है, जिसे  हमें स्वीकार कर सुधारना होगा। इसके लिए सर्वप्रथम हमें स्वयं की परिधि का विस्तार कर अपनत्व के आधार पर 'अपने' का निर्धारण करना होगा, तभी हम समाज के पीड़ित, शोषित और दीन- हीन एवं निर्बल वर्गों की संवेदनाओं और आवश्यकताओं को महसूस कर सकेंगे।

हमें एक निर्भीक, धर्मनिष्ठ, सत्य निष्ठ, कर्तव्यपरायण, स्वावलंबी एवं आदर्श समाज की स्थापना करने का प्रयास करना है और यह तभी संभव है जब हम अपने प्रयास की दिशा को अपने उद्देश्य के अनुरूप रखें। प्रयास की दिशा ही जब  उद्देश्य का खंडन और उसके महत्व को निरर्थक सिद्ध करे तो इसका तात्पर्य यही है की हमने जीवन की सहूलियतों के लिए समय द्वारा प्रस्तुत आवश्यक संघर्ष से मुह फेर लिया है। ऐसे में, परिणाम केवल प्रयास की व्यर्थता ही सिद्ध करेगा। इस दृष्टि से किसी भी राष्ट्र की नियति के सन्दर्भ में उसके नेतृत्व की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

राष्ट्र का नेतृत्व एक महत्वपूर्ण दायित्व है जिसके लिए पात्र का निर्धारण कृत्रिम लोकप्रियता के आधार पर नहीं बल्कि समय की आवश्यकता और पात्र  की योग्यता के  आधार पर होना चाहिए।

ऐसे में, अगर कोई राष्ट्र राजनीति  के प्रभाव में  अपने सचेतन निर्णय से किसी  अयोग्य को अपने नेतृत्व का दायित्व सौंप दे तो उसका निर्णय ही उसकी मानसिकता पर प्रश्नचिन्ह और उसके व्यवहार की भ्रष्टता प्रदर्शित करता है। क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?

द्योजीराम फौजदार
M.A. Final Political Science

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें