शनिवार, 17 दिसंबर 2016

ट्रिपल तलाक

देश भर में छिड़ी तीन तलाक़ पर बहस के दौरान हाल में ही इलाहबाद हाईकार्ट ने ट्रिपल तलाक़ को असंवैधानिक बताते हुए, इसे मुस्लिम महिलाओं के प्रति क्रूरता बतलाया है।
तलाक़ को लेकर कुरान में स्पष्ट व्याख्या है कि इस्लाम में निकाह एक अनुबंध है एवं निकाह और तलाक़ दोनों ही गवाहों के समक्ष होने चाहिए। तलाक़ प्रक्रिया के लिए महिला का तीन मासिक धर्म से गुजरना जरूरी है अर्थात दूसरा और तीसरा तलाक़ देने में तीन तीन माह का अंतराल होना चाहिए। एक बार में तीन बार तलाक़ बोल देने से उसे एक ही बार माना जाता है। ऐसा इसीलिए है, ताकि वह महिला पति के निर्णय पर पुनः विचार की प्रतीक्षा कर सके। ख़ास बात यह है कि इस अवधि में महिला घर छोड़कर नहीं जायेगी।

मुझे खुशी है कि इलाहाबाद हाईकार्ट ने मुस्लिम महिलाओं की इस पीड़ा को समझा है और तीन तलाक़ को क्रूरता की संज्ञा दी है एवं साथ ही यह टिप्पणी की है कि कोई भी पर्सनल लॉ संविधान से ऊपर नहीं है।
वास्तव में ट्रिपल तलाक़ जैसे पर्सनल लॉ देश की एकता में बाधक हैं। मैं हाई कौर्ट के इस फैसले का स्वागत करता हूँ। मेरी राय में मुस्लिम महिलाओं को उनका हक दिलाने के लिए मुस्लिम मैरिज एक्ट  बनाया जाए, इसमें निकाह से लेकर तलाक़ तक के प्रावधान हों एवं उल्लंघन होने पर सजा के प्रावधान हों एवं जो लोग शरीयत का हवाला देते हुए ट्रिपल तलाक़ को जायज ठहराते हैं, उन्है यह पता होना चाहिए कि कोई भी शरीयत संविधान से ऊपर नहीं है।
मेरे मत में यदि कोई व्यक्ति दूसरी या तीसरी शादी करता है तो उसे काजी व पहली पत्नी की अनुमति लेनी चाहिए।
हैरानी की बात तो यह है कि हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थो व सामाजिक अन्धविश्वाशों में इतना डूब चुके हैं कि माननीया न्यायपालिका द्वारा हमें समय समय पर अपने सवैधानिक मूल्यों के प्रति सावचेत कराया जाता है। चाहे वह राष्ट्रगान हो या ट्रिपल तलाक़।

द्योजीराम फौजदार
M.A. Final, Political Science

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